सुन्दरता सामन्जस्य मे होती है. सारे मानव समाज को सुन्दर बनाने की साधना का ही नाम साहित्य है.... जो जाति जितनी ही अधिक सौन्दर्य प्रेमी है, उसमे मनुष्यता उतनी ही अधिक होती है, किसी जाति के उत्कर्ष व अपकर्ष का पता उसके साहित्य से चलता है.---डा.हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

बुधवार, 30 जून 2010

तुझ पर

दिल तडपता है , आंसू बहते हैं। 

तेरी जुदाई का गम हर पल सह्ते हैं ॥

बेदर्द है तु, जानते हैं हम फ़िर भी । 

इस दुनिया में सिर्फ़ तुमपर ही मरते हैं ॥

आ भी जाओ

आ भी जाओ आसमां के जीनों से । 

तुम्हें गवां के मैने खुद को गंवाया है ॥

दिल

जल के दिल खाक हुआ, आंखों से रोया ना गया ।

जख्म कुछ ऐसे हुए, फ़ूलों पे सोया ना गया ॥

जख्म


कोशिशें जब भी संवरने की मैं करता हूं ।

वक्त चेहरे पे कोई जख्म लगा जाता है ॥


दर्द


मैने लफ़्जों को बरतने का हुनर सीख लिया है ।

मेरे हर दर्द को अब शेर कहा जाता है ॥

बेवफ़ा


मै अभी किस तरह उन्हे बेवफ़ा कहूं ।

मन्ज़िलों की बात है रास्तों में क्या कहूं

मुर्दा


खुदा के फ़ज़ल से आशिक मिज़ाज़ हूं मै भी ।

ये और बात है कि मुल्ला सा दिखाई देता हूं ॥

मंगलवार, 29 जून 2010

तौबा



वो कौन है जिसे तौबा की मिली फ़ुरसत ।


हमें तो गुनाह भी करने को ज़िन्दगी कम है ॥

मुस्कुराने का अन्दाज़



सबब खुला है उनके मुंह छुपाने का ।


चुरा ना ले कोई अन्दाज़ मुस्कुराने का ॥

सम्भलते क्यूं हैं ?


लोग हर मोड पे रुक रुक के सम्भलते क्यूं हैं ।



इतना डरते हैं तो घर से निकलते क्यूं हैं ॥

कातिल


कितने कम नसीब हम निकले,
खुशी के कागज मे भी गम निकले ।


इक उम्र तलाशा मुज़रिम को ,
मगर कातिल तो मेरे सनम निकले ॥

मेरे बारे में

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अभी तलाश मे हूं कि . . . . मैं कौन हूं ? ? ?